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उत्तर संख्या : 261 पाप करने से पवित्र आत्मा का भी पतन हो जाता है। सम्मानित व्यक्ति भी पाप के कारण निंदनीय हो जाता है। पापो के कारण जीव सद्गति से दुर्गति में चला जाता है पापों के कारण जीव नरक तिर्यंच आदि गतियों में घोर दुःख पाता है पाप के कारण जीव महलों में रहने के कारण भी दर-दर की ठोकरे खाते हैं. पाप कर्म के कारण बडे-बडे श्रीमंतों का दिवाला निकल जाता है। पाप के कारण ही प्रतिष्ठित एवं उच्च पद से व्यक्ति का पतन हो जाता है। पाप से जीव को अशांति, बैचेनी, अच्छे कार्यों में अरुचि होती है।

उत्तर संख्या : 262 पापों से बचने के लिये हमें धर्मनीति के विरुध्द कोई कार्य नहीं करना चाहिये।

उत्तर संख्या : 263 पापों से बचने के निम्न दस उपाय है : १. पाप से बचने के लिये क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषाय नही करना चाहिये । २. अनीति का समर्थन नहीं करना चाहिये। ३. असत्य भाषण नहीं करना चाहिये। ४. किसी के साथ छल (विश्वासघात) नही करना चाहिये । ५. किसी का बुरा नहीं सोचना चाहिये । ६. निरपराधी जीवों का घात नहीं करना चाहिये । ७. झूठ नहीं बोलना चाहिये । ८. चोरी नही करना चाहिये । ९. कुशील सेवन नहीं करना चाहिये । १०. परिग्रह का अधिक संचय नहीं करना चाहिये ।

उत्तर संख्या : 264 जीव का अहित कषाय से होता है।

उत्तर संख्या : 265 जो आत्मा को कसे अर्थात दुःख दे उसे कषाय कहते हैं। जिससे जीव को संसार में जन्म मरण करना पडे उसे कषाय कहते हैं। क्रोध, मान, माया, आदि को कषाय कहते हैं। जो आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात करे उसे कषाय कहते है। आत्मा के भीतरी कलुषित परिणामों को कषाय कहते हैं।

उत्तर संख्या : 266 कषा चार है : १. क्रोध २. मान ३. माया ४. लोभ

उत्तर संख्या : 267 गुस्सा करने को क्रोध कषाय कहते हैं। अपने और पर के घात रुप क्रूर परिणाम को क्रोध कहते है।

उत्तर संख्या : 268 क्रोध और रोष मे कोई अन्तर नही है, क्योंकि दोनो में आत्मा के क्रूर परिणाम हो जाते है।

उत्तर संख्या : 269 क्रोध चार प्रकार के होते है: १. पर्वत की रेखा के समान २. पृथ्वी रेखा के समान ३. धूलि रेखा के समान ४. जल रेखा समान

उत्तर संख्या : 270 जैसे पर्वत या चट्टान पर टांकी से रेखा खीचंनें पर बहुत दिनों में भी नही मिटती है उसी प्रकार जो क्रोध या रोष एक बार होने पर बहुत दिनों में भी न मिटे वह पर्वत की रेखा के समान क्रोध है।

उत्तर संख्या : 271 पर्वत की रेखा के समान क्रोध मिथ्यादृदृष्टि बहिरात्मा जीव को होता है।

उत्तर संख्या : 272 अनंतानुबंधी क्रोध छह महीने से लेकर अनंत काल तक रहता है।

उत्तर संख्या : 273 अनतानुबधी क्रोध परस्पर कलह हो जाने पर तीव्र बैर की गांठ एव शत्रुता की गांठ बांधने से होता है। अथवा, छह महीने से अधिक किसी से बदला लेने की भावना रखने से भी अनंतानुबंधी क्रोध होता है।

उत्तर संख्या : 274 अनंतानुबंधी क्रोध कमठ ने किया था।

उत्तर संख्या : 275 अनंतानुबंधी क्रोध करने से स्वयं का एवं दूसरों का घात होता है। परिवार एवं समाज की हानि होती है। कुल और जाति में बट्टा लगता हैं एवं अपयश होता है। पापों में प्रवृत्ति एवं कर्म का बंध होता है। आत्मा का पतन एवं दुर्गति की प्राप्ति होती है।

उत्तर संख्या : 276 अन्तानुबंधी क्रोध करने से जीव नरक गति में जाता है।

उत्तर संख्या : 277 अनंतानुबंधी क्रोध करने वाले जीव वैसे तो चारों गति में एवं मुख्य रुप से नरक गति में पाये जाते है।

उत्तर संख्या : 278 जैसे पृथ्वी के उपर हल आदि के द्वारा रेखा खींचने पर वर्षा आदि के पानी से मिट जाती है वैसे ही किसी कारण से जीव में क्रोध आने पर धर्म के पुरुषार्थ से क्रोध के संस्कार मिट जाते है उसे पृथ्वी के समान क्रोध कहते है।

उत्तर संख्या : 279 पृथ्वी रेखा के समान क्रोध व्रत रहित सम्यग्यदृष्टि को होता है।

उत्तर संख्या : 280 पृथ्वी की रेखा के समान क्रोध अधिक से अधिक छह महीने तक रहता है।

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