णमोकार तीर्थ QA

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उत्तर संख्या : 461 णमोकार मन्त्र में पाँच पदों के प्रथम अक्षर को पृथक करने से अ सि आ उ सा का उद्भव होता है।

उत्तर संख्या : 462 णमोकार मन्त्र की जाप में १०८ दाने होते हैं।

उत्तर संख्या : 463 इसका कारण यह है कि मनुष्य के जीवन में प्रतिदिन १०८ प्रकार के पाप होते हैं। ये पाप क्रोध मान माया लोभ ये चार कषाय के आवेश में मन, वचन काया के निमित्त से समरम्भ, समारम्भ और आरम्भ जनित कार्यों के करने से होते हैं। ये पाप कृत, कारित, अनुमोदना इन तीन प्रकार से होते हैं। इन सबको परस्पर गुणा करने से १०८ प्रकार होते हैं। इन १०८ प्रकार से होने वाले पापों से छुटकारा पाने के लिये माला या जाप में १०८ दाने या मणि रखे गये हैं।

उत्तर संख्या : 464 णमोकार की माला में १०८ मणियों के अलावा ऊपर की तीन मणियों का प्रयोजन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रुप रत्नत्रय की ओर साधक का लक्ष प्रश्न २ जावे एवं रत्नत्रय स्वरुप मोक्षमार्ग की रुचि साधक में उत्पन्न हो, रत्नत्रय स्वरुप उत्तर आत्मा का स्वभाव जान सकें, इस प्रयोजन की सिद्धि के लिये ऊपर के तीन मणियों को रखा गया है। इसके अतिरिक्त इससे माला की शुरुवात व समाप्ति का संकेत भी हो जाता है।

उत्तर संख्या : 465 ऊपर के इन तीन मणियों पर प्रारंभ व समाप्ति पर नीचे से ऊपर की ओर क्रम से सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः, सम्यक्चारित्राय नमः बोलना चाहिये।

उत्तर संख्या : 466 हाँ, णमोकार मन्त्र के जाप व स्मरण से परिणामों की विशुध्दि होती है एवं कषायों की मन्दता होती है, जिससे पापों का नाश एवं पुण्य की प्राप्ति होती है।

उत्तर संख्या : 467 हौं, णमोकार मन्त्र के ५ वाक्यों को विभिन्न रंगों में ध्यान कर सकते हैं। णमो अरिहन्ताणं का सफेद रंग में, णमो सिध्दाणं का लाल रंग में, णमो आइरियाणं का पीला रंग में, णमो उवज्झायाणं का नीले रंग में, णमो लोए सव्व साहूणं का काले रंग में ध्यान करना चाहिये।

उत्तर संख्या : 468 णमोकार मन्त्र के पदों का विभिन्न रंगों में ध्यान करने से अ‌द्भुत एंव अचिन्त्य प्रभाव होता है। णमो अरिहन्ताणं का सफेद रंग में ध्यान करने से आरोग्य (स्वास्थ्य ( ठीक रहता है। णमो सिध्दाण का लाल रंग में ध्यान करने से प्रमाद (आलस्य) दूर होता है। णमो आइरियाणं का पीले रंग में ध्यान करने से ज्ञान का विकास होता है। णमो उवज्झायाणं का नीले रंग में ध्यान करने से क्रोध (गुस्सा) दूर होता है। णमों लोए सव्व साधूर्ण का काले रंग में ध्यान करने से प्रतिरोध शक्ति बढ़ती है एवं शत्रुओं पर विजय होती है।

उत्तर संख्या : 469 "परम पदे स्थिता सः परमेष्ठी" जो परम पद में स्थित है, वे परमेष्ठी है।

उत्तर संख्या : 470 १. जो आत्मा के पद और गुणों में ज्येष्ठ अर्थात सबसे बड़े होते हैं, उन्हें परमेष्ठी कहते हैं। २. जो उत्कृष्ठ पद में विराजमान होते हैं, उन्हें परमेष्ठी कहते हैं। ३. जिनको पूजने से पुण्य की प्राप्ति होती है उन्हें परमेष्ठी कहते हैं। ४. जिन्हें इन्द्र, नरेन्द्र, खगेन्द्र, धरणेन्द्र, दानवेन्द्र राजा-महाराजा, नेता, सेठ- साहूकार आदि सभी नमस्कार करते हैं, उन्हें परमेष्ठी कहते हैं।

उत्तर संख्या : 471 पमेष्ठी पाँच होते हैं। १. अरिहन्त २. सिध्द ३. आचार्य ४. उपाध्याय ५. साधु

उत्तर संख्या : 472 १. जिनके चार घातिया कर्मों का नाश हो गया है, जिन्हें अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति हुई है एवं जो भव्य जीवों को धर्मोपदेश देते हैं उन्हें अरिहन्त परमेष्ठी कहते हैं। २ जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी है, जिनके चार घातिया कर्म नष्ट हो चुके है, उन्हें अरिहन्त परमेष्ठी कहते हैं।

उत्तर संख्या : 473 अरिहन्त परमेष्ठी के ४६ मूलगुण होते हैं।

उत्तर संख्या : 474 अरिहन्त परमेष्ठी के ४६ मूलगुण निम्न प्रकार से है चौतीस अतिशय सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ । अनत चतुष्टय गुण सहित, ये छयालीसों पाठ। ३४ अतिशय, ८ प्रातिहार्य और ४ अनंत चतुष्टय ये अरिहन्त के ४६ मूलगुण है।

उत्तर संख्या : 475 सर्व साधारण प्राणियों में नहीं पायी जाने वाली अद्भुत या अनोखी बात को अतिशय कहते हैं।

उत्तर संख्या : 476 १० अतिशय जन्म के, १० अतिशय केवल ज्ञान के और १४ अतिशय देवों द्वारा किये हुये, इस प्रकार अरिहन्त के कुल १०+१०+१४ = ३४ अतिशय होते हैं।

उत्तर संख्या : 477 जन्म के दस अतिशयों का वर्णन दो दोहों में इस प्रकार किया है अतिशय रुप सुगन्ध तन, नहिं पसेव निहार । प्रिय हित वचन अतुल्यबल, रुधिर श्वेत आकर । लच्छन सहसरु आठ तन, समचतुष्ठ संठान । वज्रवृषभनाराचजुत, ये जन्मत दश जान । अर्थात् १ अत्यन्त सुन्दर रुप २. सुगंधित शरीर ३. पसीना नहीं आना ४. नीहार रहित (मलमूत्र) नहीं होना ५. हित-मित-प्रिय वचन बोलना ६. अतुल्य बल ७. दूध के समान सफेद खून होना ८. समचतुस्त्र संस्थान ९. वज्रवृषभनाराचसंहनन होना १०. शरीर में १००८ शुभ लक्षणों का होना

उत्तर संख्या : 478 योजन शत इक में सुभिख, गगन गमन मुख चार। नहि अव्या उपसर्ग नहि, नाहिं कवलाहार ॥ सर्व विद्या ईश्वरपनों, नाहि बढ़े नख केश। अतिमिष दृग छाया रहित, दश केवल के वेश ॥ १. सौ-सौ येजन में सुभिक्ष होना । २. आकाश में गमन होना। ३ . चतुर्मुख (एक मुख होने पर भी चारों दिशाओं में चार मुख) दिखना। ४. पूर्ण दया का होना। ५. उपसर्ग नहीं होना। ६. कवलाहार (भोजन-ग्रासाहार) नहीं होना। ७. सर्व विद्याओं के स्वामी होना। ८. नख और बाल नहीं बढ़ना। ९. आंख की पलकों का नहीं झपकना। १०. शरीर की छाया नहीं पड़ना।

उत्तर संख्या : 479 देवरचित है, चारदश, अर्द्धमागधी भाष। आपस माहीं मित्रता, निर्मल दिश आकाश ॥ होत फूल फल ऋतु सबै, पृथ्वी कांच समान । चरण कमल जल कमल हैं, नमते जय जय वान ॥ मन्द सुगन्ध क्यारि पुनि गन्धोदक की दृष्टि। भूमिविर्ष कण्टक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टि ॥ धर्मचक्र आगे रहे, पुनि बसु मगल सार । अतिशय श्री अरिहन्त के, ये चौतीस प्रकारा। १. अर्द्ध मागधी भाषा होना। ३. दिशाओं का निर्मल होना। ५. छहों ऋतुओं के फल-फूल एक समय में फलना। २ जीवों में परस्पर मित्रता होना। ४. आकाश का निर्मल होना। ६ भगवान के चरणों के नीचे स्वर्णमयी कमलों की रचना होना। ७. दर्पण के समान पृथ्वी का होना।८ ९ शीतल मंद सुगंध पवन चलना। ११. भूमि कंटक रहित होना। १२ देवों द्वारा आकाश में जयकार होना। १० सुगन्धित जल वृष्टि होना। समस्त जीवों का आनन्दमयी होना। १३. धर्मचक्र का आगे चलना। १४ अष्ट मंगल द्रव्यों का होना।

उत्तर संख्या : 480 छत्र २ चमर ३ घंटा (कलश) ४ झारी ५. ध्वजा ६. पंखा ७ स्वस्तिक दर्पणा

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