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उत्तर संख्या : 481 अरिहन्त परमेष्ठी के आठ प्रातिहार्य इस प्रकार है १. अशोक वृक्ष २ सिंहासन ३ छत्र त्रय ४ भामण्डल ५. दिव्यध्वनि ६ चमर ७. पुष्पवृष्टि ८ दुन्दुभि बाजे

उत्तर संख्या : 482 अरिहन्त परमेष्ठी के चार अनंत चतुष्टय इस प्रकार है १. अनंतदर्शन २. अनन्तज्ञान ३ अनन्त सुख ४ अनन्त वीर्य

उत्तर संख्या : 483 अरिहन्त भगवान के दर्शनावरणी, ज्ञानवरणी, मोहनीय और अन्तराय वे चार धातिया कर्म नष्ट होते हैं।

उत्तर संख्या : 484 अरिहन्त परमेश्री का दर्शनावरणी कर्म के क्षय से अनन्त दर्शन, ज्ञानवरणी कर्म क्षय से अनन्त ज्ञान, मोहनीय कर्म के क्षय से अनन्त सुख तथा अन्तराय कर्म के क्षय से अनन्त वीर्य प्रगट होता है।

उत्तर संख्या : 485 अरिहन्त परमेष्ठी को वीतरागी कहते हैं क्यों कि वे १८ दोष से रहित होते हैं।

उत्तर संख्या : 486 अरिहन्त परमेष्ठी में निम्नलिखित अवारह दोष नहीं होते हैं जन्म जरा तिरखा क्षुधा, विस्मरण आरत खेद। रोग शोक मद मोह भय, निद्रा चिन्ता स्वेद ॥ नाहिं होत अरिहन्त के, सो छवि लायक मोष ॥ अर्थात = अरिहन्त परमेष्ठी को ये अठारह दोष नहीं होते हैं १. जन्म २. बुढ़ापा ३. प्यास ४. भूख ५. आश्चर्य ६. आरत ७. दुःख ८. रोग १. शोक १०. मद (घमण्ड) ११. मोह १२. भय १३. निद्रा १४ चिन्ता १५ स्वेद १६. रागं १७. द्वेष १८. मरण

उत्तर संख्या : 487 अरिहन्त परमेष्ठी को सर्वज्ञ इसलिये कहते है क्योंकि वे लोक अलोक की, छह दायां की गुण और पर्याय को एक समय में एक साथ जानते हैं।

उत्तर संख्या : 488 अरिहन्त परमेष्ठी को हितोपदेशी इसलिये कहते है क्योकि वे स्वयं, सम्यदर्शन सम्यगज्ञान, सम्यक्चारित्र के मार्ग पर चलते है और दूसरों को चलने का उपदेश देते है

उत्तर संख्या : 489 अरिहन्त परमेष्ठी को सर्वज्ञ इसलिये कहते है क्योंकि वे लोक अलोक की, छह दायां की गुण और पर्याय को एक समय में एक साथ जानते हैं।

उत्तर संख्या : 490 अरिहन्त परमेष्ठी को हितोपदेशी इसलिये कहते है क्योकि वे स्वयं, सम्यदर्शन सम्यगज्ञान, सम्यक्चारित्र के मार्ग पर चलते है और दूसरों को चलने का उपदेश देते है।

उत्तर संख्या : 491 अरिहन्त परमेष्ठी और केवली भगवान में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों के घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं।

उत्तर संख्या : 492 अरिहन्तपरमप्टी के जन्म के दश अतिशय शरीर के आश्रित है एवं चार अनंत चतुष्टय आत्मा के आश्रित है

उत्तर संख्या : 493 जो जन्म, मरण एवं बुढ़ापे से रहित हैं एवं जिनके आतां कर्म नाश हो गये है. उन्हें सिध्द परमेष्ठी कहते है।

उत्तर संख्या : 494 सिध्द परिमेष्ठी लांक के अग्रभाग पर रहते हैं। सिध्द परमेष्ठी ईषत्प्राग्मार पृथ्वी के ऊपर तीन बात बलय के अग्रभाग में रहते हैं।

उत्तर संख्या : 495 सिध्द परमेष्ठी के आठ मूलगुण होते है समकित दरसन ज्ञान, अगुरुलघु अवगाहना। सूक्ष्म बौरजवान, निराबाध गुण सिध्द के॥ १. सम्यकत्व २. अनन्त दर्शन ३ अनन्त ज्ञान ४ अनुरुलघु ५. अवगाहना ६. सूक्ष्मत्व ७ अनंत वीर्य ८ अव्याबाध

उत्तर संख्या : 496 १. ज्ञानावरणी कर्म के क्षय से अनन्त ज्ञान गुण। २.दर्शनावरणी कर्म के क्षय से अनन्त दर्शन गुण। ३ वेदनीय कर्म के क्षय से अव्याबाध गुण । ४. मोहनीय कर्म के क्षय से सम्यक्त्व गुण। ५. आयु कर्म के क्षय से अवगाहन गुण। ६. नाम कर्म के क्षय से सूक्ष्मत्व गुण । ७. गोत्र कर्म के क्षय से अगुरुलघु गुण । ८. अन्तराय कर्म के क्षय से अनन्त वीर्य गुण सिध्द परमेष्ठी को प्रकट होता है।

उत्तर संख्या : 497 अरिहन्त और सिध्द परमेष्ठी में, सिध्द परमेष्ठी ही उच्च है।

उत्तर संख्या : 498 सिध्द परमेष्ठी उच्च इसलिये है क्योंकि वे आठो कर्मों से रहित है, जबकि अरिहन्त परमेष्ठी के चार ही कर्म नष्ट हुये हैं।

उत्तर संख्या : 499 जो भव्य मनुष्य। व दिगम्बर दीक्षा लेकर, कों का क्षय करता है, वह सिध्द परमेही बन सकता है।

उत्तर संख्या : 500 हाँ, आप भी दीक्षा लेकर कर्मों का क्षय कर सिध्द बन सकते हैं।

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